by Sudhakar Shahane
उम्र थी सिर्फ़ १३ वर्ष की, तब से ही संगीत से लगाव था उसे … वांसदा की गलियों में घूमना फिरना … गाव में रहनेवाली गुजरिया के लोकगीत सुनना और फिर अपने दोस्तों को हुबहू सुनाना … पिताजी चल बसे तो बड़े भाई बलवंत को घर की जिम्मेदारी आ गई थी और उसकी भी … पढाई लिखाई में ज्यादह ध्यान नहीं था … ‘टेलरी’ भी की मगर दिल नहीं लगा उसका … ‘जयकिशन डायाभाई पांचाल’ फिर एक दिन चला आया सपनों की मायानगरी में …बंबई (मुंबई) हर किसी को सहारा देनेवाली नगरी …. संगीत विशारद वाडीलाल जी के शिष्य रहे जय की, ‘हारमोनियम’ पर उंगलिया बड़ी सहजता और कुशलता से चलती थी … ‘चंद्रवदन भट्ट’ साहब के ऑफिस में अक्सर चक्कर लगाता रहता की, कुछ चक्कर चल जाये … वहां एक युवक से मुलाक़ात हो गयी, और फिर गहरी दोस्ती भी … उस युवक का नाम ‘शंकर सिंह रघुवंशी’ था, वह युवक भी संगीत निर्देशक बनना चाहता था …तबला ग़जब का बजाता था …उसे भी भट्ट साहब ने काम दिलाने का वादा किया था … दोनों का सपना, मक़सद एक था … फिर एक दिन उस युवक ने जय को कहा, पृथ्वी थिएटर में हारमोनियम वादक की जगह खाली है, क्या वहां काम करोगे ? जय ने फ़ौरन हां कहा, फिर एक नयी जिंदगी, नयी कहानी शुरू हुई, तब उन्हें भी पता नहीं था, लेकिन दिल गा रहा था …
‘कहता है दिल रस्ता मुश्किल
मालूम नहीं है कहा मंजिल’ ?
लेकिन मंजिल अब ज्यादह दूर नहीं थी … पृथ्वी थिएटर में दिन बड़े ग़ज़ब के गुजरने लगे …शंकर और जय कुछ छोटी छोटी भूमिकाएं भी निभाते नाटक में … ‘पठान’ का किरदार भी निभाते, साथ में धुनें भी बनाते … किस्मत पलटने में देर नहीं लगी … राज साहब ने १९ वर्षीय जय और २६ वर्षीय शंकर को बरसात के संगीत निर्देशन की जिम्मेदारी दी … और इस युवा संगीतकार जोड़ी ने पहले ही फ़िल्म में कम्माल कर दी, संगीत का नया इतिहास लिख दिया … इन दोनों के साथ दो नौजवाँ गीतकार भी थे शैलेंद्र और हसरत जयपुरी
एक आया था हैदराबाद से, एक गुजरात से, एक ‘रेलवे’ में (‘शैलेंद्र) था तो एक ‘बेस्ट’ में (हसरत जयपुरी)… चारों चार दिशाओं से एक जगह आये और दसो दिशाओंमें इनका बोलबाला रहा, लगातार २० बरस तक संगीत साम्राज्य पर इन्हीं का अधिराज था …शंकर जी अपने काम पर दृढ़ विश्वास रखते थे, काम के बाद भी संगीत से जुड़े रहते तो जयभाई काम के बाद अपना समय लोगों से मिलने में गवाते …जैसे की गुजराती होते है, वैसे ही बड़े ही मिलनसार थे जय …पार्टियों में जाना …लोगों से परिचय बढ़ाना, उनकी खुशियाँ और गम में शरीक होना … जिंदगी को जिंदादिली और ख़ुश मिज़ाज नजरिये से देखते थे …अब शोहरत थी, इज्जत थी, इस जोड़ी का संगीत देश के कोने कोने के साथ रूस, मिडिल ईस्ट और चीन की धरती तक पहुँच गया था लेकिन शंकर जी के साथ जय के भी कदम जमीं पर थे, नए नए प्रयोग करते थे, पारंपारिक वाद्यों के साथ ‘गिटार’, ‘मेंडोलिन’, ‘अकॉर्डियन’ आदि नए वाद्यों का भी बदलते वक़्त को भांपकर इस्तेमाल करते रहे, अजरामर धुनें बनाते रहे ….
१९६४ के बिनाका गीतमाला के अंतिम सालाना प्रोग्राम में, हसरत साहब से अमिन सायानी साहब ने एक सवाल पूछा था …
‘ये कैसे पहचाने की, कौनसी धुन शंकर जी ने बनाई है और कौनसी जयकिशन साहब ने ?
हसरत साहब का जवाब यूँ था (ऑडियो क्लिप)
‘आशिक़ाना ढंग की धुनें बनाते थे ‘जयकिशन’ साब और फलसफ़ा ढंग की, क्लासिकल ढंग की धुनें बनाते थे हमारे शंकर जी’
सैकड़ों गीतों को अमर कर दिया था जय ने शंकर भाई के साथ दिन रात एक करके, कभी कभी पूरी रात बीत जाती थी गीतों की रिकॉर्डिंग में पर मुस्कुराहट कायम रहती …उन दिनों आज जैसी सुविधाएं भी नहीं थी रिकॉर्डिंग की, लेकिन संगीत की साधना करनेवाले सच्चे फनकारों को सृजन के लिए इन की जरुरत भी नहीं थी …पाश्चात्य धुनों के साथ ‘बसंत बहार’ (१९५६) में अस्सल रागदारी पर आधारित धुनें बनाकर उन्होंने ‘हम किसी से कम नहीं’ यह दिखा दिया था … सबको मुंहतोड़ जवाब दिया था …५० और ६० के दशक केवल उन्हीं के थे … SJ की इस लोकप्रियता की वजह थी, शंकर जी को जय की आजीवन समर्थ साथ … कभी कभी शंकर जी की गैरहाजिरी में जय ही संगीत की बागड़ोर संभालते और संगीत का दर्ज़ा किसी भी कीमत पर कायम रखते (फ़िल्म – आरज़ू)
‘दो जिस्म मगर एक जान है हम
एक दिल के दो अरमान है हम’
बस ऐसे ही जिये, साथ हँसे, रोयें जय साहब और शंकर जी …
राज साहब की होली भी धूमधाम से मनाते थे जय, शंकर जी के साथ तो ‘वॉर फंड’ के लिए स्टेज प्रोग्राम में भी क़दम से क़दम मिला कर खड़े रहते और अपना योगदान देते रहते …
फ़िल्म संगम में राज साहब का एक संवाद है …
‘रोयें तो यार के काँधे पर
जायें तो यार के काँधे पर’
१४ दिसंबर १९६६ को अपना जिगरी यार शैलेंद्र के बिछड़ने पर कंधा देते वक़्त, रोते हुए जय और शंकर जी के साथ राज साब को भी यही संवाद याद आया होगा और फिर अपनी सफलता की चरम सीमा पर पहुंच कर १२ सितंबर १९७१ को जय भी चले गये अपनी सुरीली जीवनयात्रा समाप्त करके सिर्फ ४१ साल की उम्र में …शंकर जी के दोनों बाहूँ टूट चुके थे, पहले कविराज अब जय …
लेकिन शानदार कीर्तिमान स्थापित किये थे उन्होंने, सब कुछ हासिल कर लिया था …
‘नौ बार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का ‘फ़िल्म फेयर पुरस्कार’,
‘बिनाका गीतमाला’ इस सर्वाधिक लोकप्रिय रेडियो प्रोग्राम में १३५ – १४० ‘सरताज’ गीत
१९६८ में ‘पदमश्री’ पुरस्कार
आज जय साहब के स्मृति दिन पर ग्रुप के सभी दोस्तों के साथ उन्हें विनम्र अभिवादन !!!
121T.r. Patel, Kiran Kamdar and 119 others
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